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याद आ जायेगी उन पलों की ,ऐसी कविता दिल जीत लेगी आपका

छत पे सोये बरसों बीते
तारों से मुलाक़ात किये
और चाँद से किये गुफ़्तगू
सबा से कोई बात किये।


न कोई सप्तऋिषी की बातें
न कोई ध्रुव तारे की
न ही श्रवण की काँवर और
न चन्दा के उजियारे की।


देखी न आकाश गंगा ही
न वो चलते तारे
न वो आपस की बातें
न हँसते खेलते सारे।


न कोई टूटा तारा देखा
न कोई मन्नत माँगी
न कोई देखी उड़न तश्तरी
न कोई जन्नत माँगी।


अब न बारिश आने से भी
बिस्तर सिमटा कोई
न ही बादल की गर्जन से
माँ से लिपटा कोई।


अब न गर्मी से बचने को
बिस्तर कभी भिगोया है
हल्की बारिश में न कोई
चादर तान के सोया है।


अब तो तपती जून में भी न
पुर की हवा चलाई है
न ही दादी माँ ने कथा
कहानी कोई सुनाई है।


अब न सुबह परिन्दों ने
गा गा कर हमें जगाया है
न ही कोयल ने पंचम में
अपना राग सुनाया है।


बिजली की इस चकाचौंध ने
सबका मन भरमाया है
बन्द कमरों में सोकर सबने
अपना काम चलाया है।


तरस रही है रात बेचारी
आँचल में सौग़ात लिये
कभी अकेले आओ छत पे
पहले से जज़्बात लिये।।

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